Sunday, February 2, 2020

मैं और मैं – कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर || mai or mai-kanheyalal Mishra prabhakar


मैं और मैं – कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर



मूल पाठ –


     जब देखो गुमसुम, जब देखा गुमसुम! अरे भाई, तुम्हें क्या साँप सूँघ गया है कि सुबह के सुहावने समय में यों चुपचाप बैठे हो ? तुमसे अच्छे तो देवीकुंङ के कछुवे ही हैं कि तैरते नजर तो आ रहे हैं। उठो, दो-चार किलकारियाँ भरो और अँगीठी के पेट में गोला ड़ालो, जिससे अपना भी पेट गरमाए।
    
ओ हो, तुम कहाँ से आ टपके इस समय ? कोई कितने ही गंभीर मूड़ में हो, विचारों की कितनी ही गहराइयों में उतर रहा हो, तुम्हारी आदत है बीच में आ कूदना और फैलाने लगना लन्तरानियों के लच्छे-एक के बाद एक। यह सच है कि यह बहुत बुरी आदत है।
    
     तो हम लन्तरानियों के लच्छे फैलाते हैं और तुम गंभीर मूड़ में रहते हो। सचाई यह है भाई जान कि जमाना बहुत खराब है। जिस गधे को नमक दो, वही कहता है कि मेरी आँख फोड़ दी। हम जा रहे थे अपने काम, तुम्हें दूर से देखा सुस्त, रास्ता काटकर इधर कि देखें तो माजरा क्या है, और मामला कुछ गड़बड़ हो, तो कुछ मदद करें, पर तुम्हारे तेवर कुछ ऐसे बदले हुए हैं कि जैसे हम सुबह-सुबह चार रुपये उधार माँगने आ गए हों और पहले इसी तरह हाथ उधार उठाए रुपये हमने अभी तक वापस न किए हों। बहुत अच्छे रहे।

     ना, ना यह बात नहीं है। तुम्हारा आना सर आँखों पर, तुम भी यह क्या बात कह रहे हो, पर बात यह है कि मैं इस समय बहुत चिंतन में था और लो बताऊँ तुम्हें गहरे चिंतन में क्या था, मैं अपने आप में खोया हुआ हूँ आज।

     वाह भाई वाह, क्या कहने! लो, फिर बताऊँ तुम्हें मैं भी एक बात कि आज तुमसे ऐसी दूर की हाँकी कि अब तक के सब छौंक मात हो गए। हाँ जी, तो आज तुम अपने आप में खोये हुए हो। मियाँ, खोये हुए हो, तो ड़ौंड़ी पिटवाओ या पुलिस में रिपोर्ट लिखाओ। खड़े-खड़े क्या देख रहे हो भैंगे बबूल-से।

     तुम तो अजीब आदमी हो कि मैं कह रहा हूँ सन्त सुभाव एक गहरी बात और तुम उड़ा रहे हो, गुटप्पे, पर बात यह है कि पढाई के लिए एक पैसा कभी किसी मास्टर को तुमने दिया नहीं, अक्ल आए भी तो कहाँ से । लो, फिर मैं आज तुम्हें तुम्हारे ही जैसों की एक कहानी सुनाता हूँ। उसे सुनकर तुम समझोगे कि कैसे आदमी अपने आप में खोया जाता है।
    
     पाँच आदमी आपस में गहरे दोस्त थे। करने-धरने को कुछ नहीं, खाने को दोनों समय रोटी और पीने को भंग चाहिए- पाँचों पक्के भंगड़ी-पीये और धुत्त पड़े रहे। एक दिन कहीं मंदिर में बैठे घोट रहे थे कि उन पाँचों की स्त्रियाँ इकट्ठी होकर जा पहुँची और लगी दिल के गुब्बार निकालने। जो दस-पाँच आदमी वहाँ और थे, उन्होंने भी इन स्त्रियों की बात का समर्थन किया। बड़ी बेइज्जती हुई और पाँचों ने कहीं परदेश में जाकर रोजगार करने का फैसला लिया।

     पाँचों चल पड़े। चलते-चलते आपस में सलाह की कि, भाई होशियारी से चलियो, कहीं रास्ते में ऐसा न हो कि साँझ हो जाए जरा गहरी और कोई खोया जाये- लौटकर उसकी घरवाली को क्या जवाब देंगे। फिर कुछ दूर गए, रात हुई, एक मंदिर में पड़ कर सो गए। सुबह उठते ही तब पाया कि भाई, पहले गिन लो, सब चौकस भी हैं।

     उनमें से एक ने सबको गिनाः एक, दो, तीन, चार । फिर गिनाः एक, दो, तीन, चार। जोर से चिल्लाकर कहा – अरे, हम तो घर से पाँच चले थे, ये तो रात भर में ही चार रह गए। दूसरे ने दुबारा सबको गिना, पर वे ही चार। तीसरे ने गिना, तब भी चार ही रहे। मामला संगीन हो गया और तब पाया कि लौटकर घर चलें – शायद पाँचवा आदमी रात को घर लौट गया हो।

     रास्ते में सबके सब रोते-पीटते लौट रहे थे कि एक समझदार आदमी मिला। उसने इन्हें रोककर पूछा कि वे किस मुसीबत में हैं। इन्होंने बताया कि हम घर से पाँच चले थे, पर रात भर में चार ही रह गए। उस आदमी ने इन्हें गिना तो वे पाँच थे। उसने कहाः भले आदमियों, तुम घर से पाँच चले थे और पाँच ही अब हो, तो रो क्यों रहे हो ?

     तब इन भंगड़ीयों में से एक ने फिर सबको गिनाः एक, दो, तीन, चार

     समझदार ने कहा – अरे भोंदू, अपने को तो गिन । अब इन लोगों की समझ में आया कि मामला यह है कि जो गिनता है, अपने को भूल जाता है। वही हाल मेरा हो रहा है कि मैंने घर की सोची, पड़ौसी की सोची, देश की सोची और यों समझो कि दुनिया भर की बातें सोच मारी, पर अपनी बात भूल गया और कभी यह न सोचा कि आखिर मेरा मेरे प्रति क्या कर्त्तव्य है और क्या अधिकार है। आज मैं यही सोच रहा था कि तुम आ गए। कहो फिर, मैं गहरे चिंतन में था या नहीं ?

     भाई, बात तो तुम्हारी कुछ पते की सी लगती है कि हम दुनिया की बात सोचते हैं, पर अपनी नहीं, और सच बात बड़े कह गए हैं कि – आप मरे जग परलौ यानी हम मर गए तो दुनिया मर गई। हम नहीं तो जहान नहीं। बात मन को लगती है, पर अपने बारे में सोचें ही क्या ?

     नहीं सोचते, तो लिखाओ पशुओं में नाम, क्योंकि जो सोचता नहीं, वह पशु है – जानवर है।

     तो हम पशु हैं आपकी राय में ? वाह साहब, आप हमें पशु बता रहे हैं, पर भाई, यह तो बताओ कि तुम्हें हमारी पूँछ और सींग किधर दिखाई दिए हैं ?

     पूँछ और सींग! पशु बनने के लिए पूँछ और सींग की जरूरत नहीं पड़ती। बात यह है कि पशुता और मनुष्यता दो भाव है। जो पहले सोचे और फिर चले, वह मनुष्य और सोचे कुछ नहीं, बस जिधर हवा ले जाए, चला चले वह पशु – अब आई तुम्हारी समझ में मेरी बात ?

     तो सोचना जरूरी है।

     जी हाँ, सोचना जरूरी है और अपने बारे में सोचना जरूरी है। मैं यही जरूरी कार्य कर रहा था, जब तुम आए।

     महाकवि शेखसादी एक दिन अपने बेटे के साथ सुबह की नमाज पढ कर लौट रहे थे। उनके बेटे ने देखा कि रास्ते के दोनों तरफ वाले घरों में अभी तक बहुत से आदमी सोये पड़े हैं। उसने अपने पिता से कहा, अब्बा ये लोग कितने पापी हैं कि अभी तक पड़े सो रहे हैं और नमाज पढने नहीं गए।

     विचारक शेखासादी ने दुःखभरे स्वर में कहा – बेटा, बहुत अच्छा होता कि तू भी सोता रहता और नमाज पढने न आता।

     बेटे ने आश्चर्य से पूछा, यह आप क्या कह रहे हैं, मेरे अब्बा ?

     शेखसादी ने और भी गहरे में ड़ूबकर कहा – तब तू दूसरों की बुराई खोजने के इस भयंकर पाप से तो बचा रहता, मेरे बेटे!

     मतलब यह कि अपने बारे में सबसे पहले जो बात सोचने की है, वह यह कि मेरा यह अधिकार है कि मैं अच्छे काम करूँ, अपने जीवन को ऊँचा उठाऊँ, पर मेरा यह कर्त्तव्य भी है कि जो किसी कारण से अच्छे काम नहीं कर रहे हैं, या साफ शब्दों में गिरे हुए हैं, उन्हें अपने कामों से ऊँचे उठने की प्रेरणा देते हुए भी, उन पर अपने अहंकार का बोझ न लादूँ, क्योंकि अहंकार घृणा का पिता है और घृणा जीवन की संपूर्ण ऊँचाइयों की दुश्मन है।

     खास बात यह है कि घृणा उसका घात करती है जो घृणा करता है और इस तरह मैं दूसरों से घृणा करके अपना ही घात करता हूँ।

     तो घृणा को रोकना जरूरी है ?

     हाँ जी, घृणा को रोकना – उसे उत्पन्न ही न होने देना, बहुत जरूरी है, पर रोकने की बात कहकर तुमने मुझे एक पुरानी बात याद दिला दी।

     मेरे एक मित्र हैं श्री कौशल जी। उन्हें अपने जीवन में पहली असफलता यह मिली कि एंट्रेंस पास न कर सके और नाइन्थ में ही उन्हें स्कूल को नमस्कार करना पड़ा।

     इनके कुछ दिन बाद ही उन्होंने छोटा-सा प्रेस खोल लिया। साझी समझदार था, कर्जा प्रेस के नाम लिखता रहा, आमदनी अपने । प्रेस फेल हो गया और मेरे मित्र चौराहे पर खड़े दिखाई दिए।

     अपने पिता की पूरी पूँजी लगाकर उन्होंने बर्तनों का एक कारखाना खोल लिया। बर्तन बनते, कमाई होती, रूपये छनका करते। सेठों में गिनती होने लगी पर तभी उनकी पत्नी बीमार हो गई। उसे लिए इरविन अस्पताल पड़े रहे। कारखाना मजदूर खा गए। पाँच महीने बाद लौटकर आए तो लेना कम था, देना बहुत। यहाँ भी ताला बंद किया। पन्सारी की थोक दुकान थी। मेवा के ढेर लग गए – ढेरों आती, बोरीयाँ जाती। फिर रूपया बरसने लगा, पर जाने कैसे ये घटनाएँ भी छितरा गई और पत्नी का सारा जेवर बेचकर जान छूटी।

     खाली तो रह न सकते थे। घर से दूर जाकर होटल खोल लिया। चला, चमका और ठप्प हो गया। वहाँ से भी हटे और अपने संबंधी की सोड़ा वाटर फेक्ट्री में बैठने लगे। यहाँ से एक बीमा कंपनी में गए। खूब चमके। बीमा कंपनी में ड़ायरेक्टरों का कुछ झमेला मचा, तो इन्होंने शर्बत की दुकान खोल ली और एक अखबार निकाल दिया। दोनों खूब चले, पर चलकर टिके नहीं, चले ही गए।

     अब यह एक बहुत बड़ी कंपनी के मैनेजर ड़ायरेक्टर थे। यहाँ ये ऐसे चमके कि पिछली सब चमक धीमी पड़ गई। एक बार तो ऐसी हवा बँधी कि गाँठ बँध गई, पर फिर वे ही बहुत सी बातें इकट्ठी हुई और कंपनी में ताला पड़ा।

     मेरे मित्र अब पुस्तक प्रकाशक थे। बाजार उनकी पुस्तकों से दाया हुआ था, धूम थी। खूब जोर रहे। देश स्वतंत्र हुआ, उन्हें एक यात्रा के बीच में एक जाति के लोगों ने उतार लिया और जाने कितने दिन बंदी रहे। जाने कैसे बचे और कहाँ-कहाँ भटकते रहे। बहुत दिन बाद एक पत्रकार के रूप में प्रकट हुए और अब शांति के साथ सम्मान की और व्यवस्था की जिंदगी बिता रहे हैं।

     उन्हें देखकर बराबर मेरा दिमाग चक्कर में रहता कि ये सज्जन कितने अद्भुत हैं कि इतनी असफलताओं के थपेड़े खाकर भी निराश नहीं हुए। मैं उनके बारे में बहुत सोचता, पर उनके व्यक्तित्व का रहस्य न समझ पाता।

     एक दिन एक अन्य मित्र आए श्री सिंहल। उनका कारखाना भी फेल हो गया था और वे उसका मामला निपटाने में मेरा सहयोग चाहते थे। उनके दो मोटरें बिकनी थीं पर पूरे दाम देने वाला कोई ग्राहक बाजार में न था। एक दिन बहुत ऊबे हुए मेरे पास आकर बोले, तो भाई साहब जितने में बिकती है, उतने में बेच दें, पर यह मामला निपटा दें।

     मैंने कहा, मामला तो निपटाना ही है पर 10 हजार की गाड़ियाँ 6 हजार में कैसे बेच दूँ ?

     बोले, 6 हजार में ही बेच दीजिए? बात यह है कि यह मामला निपट जाए तो मैं फ्रेश स्टाट ले सकता हूँ।

     मेरे कानों में पड़ा फ्रेश स्टार्ट – इनका अर्थ होता है – नया ताजा आरंभ। सुनते ही एक नई ताजगी अनुभव हुई और मैंने सोचा कि हर नया आरंभ अपने साथ एक ताजगी, एक तेजी, एक स्फुरण लिए आता है।

     तभी याद आ गए मुझे फिर कौशल जी, जो जीवन में बार-बार असफल होकर भी थके नहीं, ऊबे नहीं, और बराबर आगे बढते रहे और आज ही पहली बार मेरी समझ में आया उनकी उस अपराजित वृत्ति का रहस्य । यह रहस्य है– नया ताजा आरंभ। वे हारे, पर हार कर रुके नहीं और इस न रुकने में ही उनकी सफलता का रहस्य छिपा हुआ है।

     मैंने सोचा – मेरा अपने प्रति यह अधिकार है कि मैं हार जाऊँ, थक जाऊँ, गिर भी पड़ूँ और भूलूँ-भटकूँ भी, क्योंकि यह सब एक मनुष्य के नाते मेरे लिए स्वाभाविक है, संभव है, पर मेरा यह कर्त्तव्य है कि मैं हार कर भागूँ नहीं, गिर कर गिरा ही न रहूँ और भूल-भटक कर भरमता ही न फिरूँ, जल्दी से जल्दी अपनी राह पर आ जाऊँ और एक नया आरंभ करूँ क्योंकि रुक जाना ही मेरी मृत्यु है और मरने से पहले, न मेरा अधिकार है और न कर्त्तव्य।

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