भारत के महान वैज्ञानिक-जगदीश चन्द्र बोस- परमहंस योगानंद
jagdish-chandra-bose |
“जगदीश चन्द्र बोस ने
वायरलेस का आविष्कार मार्कोनी से पहले ही कर लिया था।”
यह उत्तेजक टिप्पणी सुनकर मैं रास्ते के किनारे खड़े होकर विज्ञान
विषयक चर्चा कर रहे प्राध्यापकों के एक दल के पास जाकर खड़ा हो गया। यदि उनमें सम्मिलित होने के पीछे मेरी
भावना जाति के अभिमान की थी, तो मुझे उसका खेद हैं। भारत न केवल गूढ चिन्तन में,
वरन् भौतिक विज्ञान में भी प्रमुख भूमिका निभा सकता है इस बात के प्रमाण में अपनी
गहरी अभिरूचि को मैं अस्वीकार नहीं कर सकता।
“आप कहना
क्या चाहते हैं, सर”
प्राध्यापक महोदय ने प्रसन्नतापूर्वक स्पष्टीकरण दिया। “वायरलेस
कोहीरर (Wireless
Coherer) और विद्यूत तरंगों की वक्रता दर्शाने वाले एक यंत्र का
आविष्कार सबसे पहले बोस ने किया था। परन्तु इस भारतीय वैज्ञानिक ने अपने
आविष्कारों से कोई आर्थिक लाभ उठाने ती चेष्टा नहीं की। शीघ्र ही उन्होंने अपना
ध्यान अजैव से जैव जगत् की ओर मोड़ दिया। वनस्पती शास्त्रज्ञ के रूप में उनके
द्वारा किये गये क्रांतिकारी आविष्कार उनके भौतिक विज्ञान के रूप में किये गये
मौलिक आविष्कारों से भी कहीं अधिक बढ-चढकर हैं।”
मेरे ज्ञान में वृद्धि करने वाले प्राध्यापक महाशय का मैंने
विनम्रतापूर्वक धन्यवाद किया। उन्होंने आगे कहा “यह महान् वैज्ञानिक प्रेसिड़ेन्सी
कॉलेज में मेरे सहाध्यापक हैं।”
दूसरे ही दिन मैं उस ऋषितुल्य से मिलने उनके घर गया जो मेरे घर के
पास ही था। लम्बे समय से मैं दूर से ही उनके प्रति श्रद्धाभाव रखता आ रहा था।
गम्भीर, प्रशान्त और एकान्तप्रेमी वनस्पति शास्त्रज्ञ ने शिष्टतापूर्वक मेरा
स्वागत किया। उनकी आयु पचास से साठ वर्ष के बीच थी। वे घने केश, विस्तीर्ण ललाट
तथा स्वप्निल नेत्रों के रूपवान व्यक्ति थे। उनका शरीर सुगठित था। बोलने में उनका
विशुद्ध उच्चारण उनके शुरू से ही वैज्ञानिक स्वभाव को दर्शाता था।
“पश्चिम की वैज्ञानिक सोसाइटियों की सभाओं से भाग लेकर मैं हाल ही
में वापस आया हूँ। मेरे द्वारा आविश्कृत जीवन की अविभाज्य एकता दर्शाने वाले
उपकरणों में उनके सदस्यों ने गहरी रूचि दिखायी। बोस क्रेस्कोग्राफ (Crescograph) की परिवर्धन-शक्ति (Magnifying Power) एक करोड़
गुना है। माइक्रोस्कोप तो केवल कुछ सहस्त्र गुना ही परिवर्धन करता है, फिर भी उसने
जीवविज्ञान को तीव्र गति प्रदान कर दी, जीवविज्ञान में प्राण फूँक दिये।
क्रेस्कोग्राफ अगणित मार्ग खोलता है।”
“सर! आपने विज्ञान की अमूर्त बाहों से पूर्व और पश्चिम के आलिंगनबद्ध
होने की प्रक्रिया को तेज करने के लिये बहुत कुछ किया है।”
“मेरी शिक्षा कैम्ब्रिज में हूई। प्रयोगों के आधार पर ही किसी भी
सिद्धान्त की सूक्ष्म से सूक्ष्म जाँच करने की पाश्चात्य पद्धति कितनी सराहनीय है!
यह प्रयोगमूलक कार्यपद्धति मुझे अपनी पौर्वात्य विरासत में मिली आत्मपरीक्षण की
क्षमती के साथ जुड़कर और भी अधिक प्रभावी हो गयी। इन दोनों की युति ने मुझे
दीर्घकाल से अबोल रहे प्रकृति-जगत् के मौन को तोड़ने में समर्थ बनाया। सारे भेद खोल
देने वाले मेरे क्रेस्काग्राफ के रेखाचित्र प्रमाण हैं सन्देह करने वाले किसी भी
व्यक्ति के लिये कि पेड़-पौधों में भी संवेदनशील स्नायु-तंत्र होता है और उनका जीवन
विभिन्न भावनाओं से युक्त भी होता है। प्रेम, घृणा, आन्नद, भय, सुख, दुःख,
मूर्च्छा और अन्य उत्तेजनाओं के प्रति असंख्य प्रकार की प्रतिक्रियाओं की
भावानुभूती जिस प्रकार सब प्राणियों को होती है, उसी प्रकार सब पेड़-पौधों को भी
होती है।”
“सर आपके इस क्षेत्र में आगमन से पहले तो सारी सृष्टि में व्याप्त
जीवन की अद्वितीय धड़कन एक कवि की कल्पना मात्र लगती होगी। एक सन्त को मैं कभी
जानका था जो कभी कोई फूल नहीं तोड़तो थे। वे कहते थेः ‘गुलाब के पौधे से मैं उसका
सौन्दर्याभीमान कैसे छीन लूँ। अपनी उद्दण्ड़ता से उसे विवस्त्र करके उसके
आत्म-सम्मान को धक्का कैसे पहुँचाऊँ। उनके उन सहानुभूतिपूर्ण शब्दों को आपके
आविष्कारों ने अक्षरशः यथार्थ सिद्ध कर दिया है।”
“कवि सत्य से अंतरंग होता है, जब कि वैज्ञानिक अजीबोगरीब ढंग से उस
तक पहुँचने का प्रयास करता है। किसी दिन मेरी प्रयोगशाला में आकर क्रेस्कोग्राफ के
असंदिग्ध प्रमाणों को देख लो।”
कृतज्ञतापूर्वक मैंने आमन्त्रण स्वीकार कर उन से विदा ली। बाद में
मैंने सुना कि उन्होंने प्रेसिड़ेन्सी कॉलेज छोड़ दिया है और अब वे कोलकाता में एक
अनुसन्धान केन्द्र स्थापित करने की योजना बना रहे हैं।
जब बोस इंस्टिट्यूट का उद्घाटन हुआ तब मैं उस उद्घाटन समारोह में
उपस्थित था। सैंकड़ों उत्साही लोग संस्थान के परिसर में इधर से उधर घूम रहे थे।
विज्ञान के इस नये पीठ की कलात्मकता और आध्यात्मिक प्रतीकात्मकता को देखकर मैं
मुग्ध हुआ। उसका प्रवेशद्वार सुदूर स्थित किसी प्राचीन मंदिर का अवशेष है। कमलों
से भरे एक जलकुंड़ के पीछे स्थित मशालधारी स्त्री मूर्ति नारी के लिये अमर
प्रकाश-दात्री के रूप में भारत के आदर को सूचित करती है। एक उद्यान में अगोचर
ब्रह्म को समर्पित एक छोटा-सा मंदिर है। मंदिर में मूर्तिविहीन रिक्त स्थान ईश्वर
की निराकारता को सूचित करता है।
इस संस्था को मैं आज केवल एक प्रयोगशाला के रूप में नहीं, वरन् एक
मंदिर के रूप में समर्पित करता हूँ, उनकी आदरणीय महानता खचाखच भरे सभागृह पर एक
अदृश्य चादर के समान छा गयी। “अपनी खोज में मैं कब पदार्थ विज्ञान और प्रकृति
विज्ञान के सीमा क्षेत्र में पहुँच गया, मुझे पता ही नहीं चला। मेरा आश्चर्य बढता
ही गया जब मैंने देखा कि सजीव जगत् और निर्जीव जगत् के बीच की सीमारेखाऐं मिटती जा
रही हैं और स्पर्शबिन्दु उभरते जा रहे हैं। मैंने देखा कि निर्जीव जगत् निष्क्रिय
नहीं थाः वह तो असंख्य शक्तियों के प्रभाव में पुलकित हो रहा था।
“सब में एकसमान प्रतिक्रिया धातु, वनस्पति और प्राणी को एक सामान्य
नियम में बाँधती प्रतीत हुई। वे सब थकान और खिन्नता के तत्वतः एकसमान लक्षण
प्रदर्शित करते थे जिनमें पुनः तरो-ताजा और हर्षोत्फुल्ल होने की संभावनाएँ बनी
रहती थीं। मृत्यु के साथ जुड़ी हुई स्थायी प्रतिक्रियाहीनता के प्रदर्शन में भी सब
एक समान थें। इस विराट सामान्यत्व से विस्मय विभोर होकर मैंने बहुत बड़ी आशा के साथ
अपने प्रयोगों के परिणामों को रॉयल सोसायटी के समक्ष रखा। परन्तु वहाँ उपस्थित
प्रकृति विज्ञानियों ने मुझे उनके लिये सुरक्षित क्षेत्रों पर अतिक्रमण करने के
बदले उस पदार्थ-विज्ञान के क्षेत्र तक ही अपने अनुसंधान को सीमित रखने की सलाह दी
जिसमें मेरी सफलता का भरोसा था। मैंने अनजाने में एक अपरिचित जाति व्यवस्था के
क्षेत्र में घुसकर उसके शिष्टाचार का उल्लंघन कर दिया था।
“वहाँ अनजाने में एक धर्मशास्त्रीय पूर्वाग्रह भी कार्यरत था जो
अज्ञान को भी धर्म के समान प्रश्नातीत मानता है। यह प्रायः भुला दिया जाता है कि
जिस परमसता ने हमें चारों ओर से सृष्टि के इस नित्य बढते ही जाते रहस्य से घेर रखा
है, उसी ने प्रश्न करने और समझने की इच्छा भी हम में प्रतिष्ठापित कर दी है। अनेक
वर्षों तक लोगों की गलतफहमियों का शिकार बनते रहने से एक बात मेरी समझ में आ गयी-
विज्ञान के उपासक का जीवन अनिवार्य रूप से अनन्त संघर्ष से भरा होता है। लाभ और
हानि, सफलता औऱ विफलता को एक समान मानते हुए उसे अपना जीवन प्रेमश्रद्धायुक्त
अर्घ्य के रूप में अर्पण करना पड़ता है।
“कालान्तर में विश्व की प्रमुख वैज्ञानिक सोसायटियों ने मेरे
सिद्धान्तों और निष्कर्षों को स्वीकार करके विज्ञान में भारत के योगदान को मान्य
किया। जो कुछ भी छोटा या सीमित हो, वह क्या भारत के मन को कभी तृप्त कर सकता है!
एक अखण्ड़ जीवन्त परंपरा और पुनर्योवन प्राप्त करने की एक जीवनप्रद शक्ति के द्वारा
इस भूमि ने अगणित परिवर्तनों में बार-बार अपना कायाकल्प किया है। भारत में सदा ही
ऐसे लोग उत्पन्न होते आये हैं जिन्होंने समय के तात्कालिक और मोहक पुरस्कार को
ठुकराकर जीवन के सर्योच्च अभीष्टों को पाने का प्रयास किया है- अकर्मण्य परित्याग
द्वारा नहीं, वरन् कर्मठ, कठोर संघर्ष द्वारा। संघर्ष को अस्वीकार करने वाले
दुर्बल के पास कुछ प्राप्त न कर पाने के कारण त्यागने के लिये भी कुछ नहीं होता।
जिसने संघर्ष कर विजय प्राप्त की हो, वही केवल संसार को अपनी विजय के अनुभव का फल
प्रदान कर उसे समृद्ध कर सकता है।
“इस बोस प्रयोगशाला में जड़ पदार्थों की प्रतिक्रिया पर अब तक किये
जा चुके कार्य से और वनस्पति-जीवन के अप्रत्याशित तथ्य सामने आ जाने से पदार्थ
विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, चिकित्सा, कृषि और यहाँ तक कि मनोविज्ञान के क्षेत्र
में भी, अनुसन्धान के अत्यंत विस्तृत क्षेत्र खुल गये हैं। जिन उलझनों के बारे में
अब तक यह माना जाता था कि उन्हें सुलझाया नहीं जा सकता, वे भी अब प्रयोगात्मक
अन्वेषण के कार्यक्षेत्र में आ गयी हैं।
परमहंस योगानंद |
“परन्तु कठोर सटीकता के बिना उच्च सफलता नहीं मिल सकती। इसीलिये
प्रवेश कक्ष में अपने-अपने केस में रखे गये मेरे द्वारा आविष्कृत अतिसंवेदनशील
उपकरणों और वैज्ञानिक यंत्रों की लम्बी-लम्बी कतारें लगी हैं। वे दृश्यमान आभास के
पीछे छिपे सत्य को खोजने के लिये आवश्यक दीर्घकालिक अनवरत प्रयत्न की व मानव के
सीमित सामर्थ्य की परिसीमाओं को लांघने के लिये आवश्यक अविराम कठोर परिश्रम, लगन
और उद्योगशीलता की गाथा सुनाते हैं। सभी आविष्कारक वैज्ञानिक जानते हैं कि
वास्तविक प्रयोगशाला तो मन हैं, जहॉ वे माया के पर्दे के पीछे छिपे सत्य के नियमों
को खोज निकालते हैं।
“यहाँ जो लेक्चर दिये जायेंगे वे किसी दूसरे से प्राप्त ज्ञान की पुनरावृत्ति
मात्र नहीं होंगें। उनमें इन कक्षों में प्रथम बार सिद्ध किये गये नये आविष्कारों
का ज्ञान दिया जायेगा। इस संस्था के
कार्य-विवरण के नियमित प्रकाशनों द्वारा भारत के योगदान समस्त विश्व में
पहुँच जायेंगे। वे सार्वजनिक सम्पत्ति बन जायेंगे। कभी भी किसी भी बात का ‘पेटेंट’
नहीं लिया जायेगा। हमारी राष्ट्रीय संस्कृति का सार ही यह है कि हमें ज्ञान का
प्रयोग केवल अपने लाभ के लिये करने की संस्कृतिहीनता से सदैव दूर रहना चाहिये।
“मेरी यह भी इच्छा है कि सुविधाएं जहाँ तक सम्भव हो सके, सभी देशों
के अनुसन्धानकर्त्ताओं के लिये उपलब्ध हों। इसमें मैं अपने देश की परम्पराओं को
आगे चलाने का प्रयास कर रहा हूँ। पच्चीस शताब्दियों पूर्व भी भारत नालंदा और
तक्षशिला के अपने प्राचीन विश्वविद्यालयों में विश्व के सभी हिस्सों से आते छात्रों
को ज्ञानप्राप्ति की सुविधा उपलब्ध कराता था।
“विज्ञान न तो पूर्व का है न पश्चिम का, बल्कि अपनी सार्वलौकिकता के
कारण वह सब देशों का है, परन्तु फिर भी भारत इसमें महान् योगदान देने के लिये
विशेष रूप से योग्य है। भारतीयों की ज्वलंत कल्पनाशक्ति तो ऊपर-ऊपर परस्परविरोधी
लगने वाले तथ्यों की गुत्थी से भी नया सूत्र निकाल सकती है, परन्तु एकाग्रता की
आदत ने इसे रोक रखा है। संयम मन को अनंत धीरज के साथ सत्य की खोज में लगाये रखने
की शक्ति प्रदान करता है।”
उस महान् वैज्ञानिक के उन अंतिम शब्दों को सुनकर मेरी आँखें छलछला
उठीं। यह “धीरज” ही क्या सचमुच भारत का पर्यायवाची शब्द नहीं बन गया है, जिसने काल
और इतिहासकार, दोनों को ही समान रूप से अचंभित कर रखा है।
उद्घाटन दिवस के थोड़े दिनों बाद मैं उस अनुसन्धान केन्द्र में फिर
से गया । उस महान् वनस्पतिशास्त्रज्ञ को अपने वचन का स्मरण था। वे मुझे अपनी शांत
प्रयोगशाला में ले गये।
“अब मैं इस फर्न के पौधे को क्रेस्कोग्राफ लगाता हूँ, इसकी
गतिविधियों का अनेक गुना परिवर्धित चित्र उभरेगा। इसी मात्रा में यदि घोंघे की
रेंगने की क्रिया को परिवर्धित किया जाय तो घोंघा एक्सप्रेस ट्रेन की गति से चलता
दिखायी देगा।”
मेरी दृष्टि उत्सुकतावश पर्दे पर लगी हूई थी जहाँ फर्न की परिवर्धित
छाया दीख रही थी। सूक्ष्मातिसूक्ष्म जैव-क्रियाएँ भी अब स्पष्ट दिखायी दे रही थीं।
मेरी मंत्रमुग्ध आँखों के सामने वह फर्न का पौधा अत्यंत धीरे-धीरे बढ रहा था। बोस
महाशय ने पौधे की नोंक को धातु की एक छोटी-सी छड़ से छुआ। पर्दे पर चल रहा
मूक-नृत्य हठात् रूक गया, जैसे ही छड़ हटायी वैसे ही उस की लयबद्ध थिरक पुनः शुरू
हो गयी।
“तुमने देखा कैसे तनिक-सा भी बाह्य हस्तक्षेप संवेदनशील ऊत्तकों के
लिये बाधक है,” बोस महाशय ने कहा। “देखो, मैं इसे क्लोरोफॉर्म दूँगा और फिर उसका
प्रभाव नष्ट करने वाली औषधि भी।”
क्लोरोफॉर्म के प्रभाव ने विकास को पूर्णतः रोक दिया; उसका प्रभाव नष्ट
करने वाली औषधि ने उसे पुनः शुरू कर दिया। पर्दे पर दिखने वाले विकास के संकेतों
ने मुझे किसी सिनेमा के कथानक से भी अधिक तन्मयता के साथ जकड़ रखा था। बोस महाशय
(यहाँ खलनायक की भूमिका में) ने उस फर्न के एक हिस्से में एक तीक्ष्ण औजार घुसा
दिया; आकस्मिक फड़फड़ाहट ने दर्द का संकेत दिया। जब उन्होंने पौधे के तने को ब्लेड़ से
अंशतः काट दिया तब छाया में तीव्र छटपटाहट दिखायी दी, फिर मृत्यु की अंतिम
स्तब्धता में वह शांत हो गयी।
“एक विशाल वृक्ष को पहले क्लोरोफॉर्म देकर फिर उसका स्थानान्तरण
करने में मैंने सफलता प्राप्त कर ली। साधारणतया वनों के ये राजा स्थानान्तरित करने
के कुछ ही दिन बाद मर जाते हैं।” उस जीवनरक्षक युक्तिकौशल का वर्णन करते हुए बोस
महाशय अत्यंत प्रसन्नता के साथ मुस्करा रहे थे। “मेरे सूक्ष्मग्राही यंत्रों के रेखाचित्रों
ने सिद्ध कर दिया है कि पेड़-पौधों में रस संचार-प्रणाली होती है; प्राणियों में
जैसे रक्तसंचार होता है, वैसे ही पेड़-पौधों में रस संचार होता है। पेड़-पौधों में
रस की ऊर्ध्वगति को केवल केशिका आकर्षण (Capillary Attraction)
सदृश किसी यांत्रिक क्रिया के आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता, जैसा कि
सामान्यतया प्रयास किया जाता है। क्रेस्कोग्राफ ने इसे सजीव कोशिकाओं की क्रिया के
रूप में दर्शाया है। पेड़ के अन्दर से लम्बी गोलाकार नली चलती है जिसमें क्रमिक
वृतों से सिकुड़ने वाली लहरें उठती रहती हैं जो ह्रदय का काम करती है! हम जितनी ही
अधिक गहराई में जाकर देखेंगे उतनी ही अधिक स्पष्टता से इस सत्य का प्रमाण मिलता
जाता है कि इस बहुविध प्रकृति का प्रत्येक रूप एक ही सूत्र में बँधा है।”
बोस महाशय ने एक अन्य यंत्र की ओर इशारा किया।
“मैं तुम्हें टिन के एक टुकड़े पर कुछ प्रयोग दिखाता हूँ। धातुओं की
प्राणशक्ति उत्तेजना के प्रभाव में अनुकूल या प्रतिकूल प्रतिक्रिया दिखाती है।
स्याही के निशान विभिन्न प्रतिक्रियाओं को चिह्नांकित करेंगे।”
मैं तल्लीन होकर आण्विक संरचना की लक्षणस्वरूप तरंगों को अंकित करने
वाले रेखाचित्र (Graph) को देखने लगा। जब प्रोफेसर साहब
ने टिन को क्लोरोफॉर्म लगाया तब कंपन-लेखन थम गया। जब धीरे-धीरे उस टिन की सामान्य
अवस्था लौट आयी, तब वह पुनः शुरू हो गया। अब बोस महाशय ने एक विषैला रसायन लगाया।
टिन के छटपटाते छोर के साथ-साथ सुई ने अद्भुत रूप से रेखाचित्र पर मृत्यु की सूचना
अंकित कर दी। वैज्ञानिक महोदय ने कहाः
“बोस यंत्रों ने प्रदर्शित कर दिया है कि कैंची और मशीनरी में
प्रयुक्त इस्पात सदृश धातु भी थकते हैं और बीच-बीच में विश्राम मिलने से उनमें
पुनः ताजगी और कार्यक्षमता आ जाती है। विद्युत प्रवाह या अति भारी दबाव से धातुओं में जीवन की धड़कन को गम्भीर क्षति
पहुँचती है या वह धड़कन सदा के लिये रूक भी सकती है।”
उस कक्ष में चारों ओर रखे अथक प्रतिभा के मुखर प्रतीक, असंख्य आविष्कारों
पर मैंने दृष्टि दौड़ायी।
“सर, यह दुःख की बात है कि आपके अद्भुत यंत्रों का पूर्ण लाभ उठाकर
बड़े पैमाने पर कृषि-विकास को गति नहीं दी जा रही है। इनमें से कुछ यन्त्रों को
त्वरित प्रयोगों में प्रयुक्त कर के खाद के विभिन्न प्रकारों का पौधों पर क्या प्रभाव
पड़ता है। यह देखना क्या सहज सम्भव नहीं हो सकता।”
“तुम ठीक कह रहे हो। भावी पीढियाँ बोस यंत्रों को अगणित प्रकारों से
प्रयोग में लायेंगी। वैज्ञानिक को उसके परिश्रम का तत्काल पुरस्कार कदाचित ही
मिलता है, सृजनात्मक सेवा का आनन्द ही उसके लिये पर्याप्त है।”
उस अदम्य ऋषि के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त कर मैंने उनसे
विदा ली। मैंने सोचा, “उनकी अद्भुत प्रतिभा की विस्मयकारी उर्वरता क्या कभी निःशेष
हो सकती है।
बढते वर्षों के साथ उनकी प्रतिभा में कोई कमी नहीं आई। “रेजोनेन्ट
कार्ड़ियोग्राफ” नामक एक जटिल यंत्र का आविष्कार करने के बाद बोस महाशय असंख्य
भारतीय पेड़-पौधों के विस्तृत अनुसंधान में लग गये। किसी को कल्पना भी नहीं थी
ऐसी-ऐसी उपयुक्त औषधियों की एक विराट भेषज-तालिका तैयार हो गयी। कार्ड़ियोग्राफ ऐसी
अचूक सटीकता के साथ तैयार किया गया है कि उससे एक सेकंड़ का शतांश तक रेखाचित्र में
अंकित हो जाता है । उस महान् वनस्पति-शास्त्रज्ञ ने भविष्यवाणी की कि वैद्यकीय
अनुसंधान के लिये प्राणियों के अंगच्छेदन की आवश्यकता नहीं रहेगी; कार्ड़ियोग्राफ
के प्रयोग से पेड़-पौधों के अंगच्छेदन से ही काम चल जायेगा।
“किसी औषधि के पौधे और प्राणी पर एक साथ किये गये प्रयोग के
परिणामों के अंकन से साफ पता चलता है कि उन दोनों पर उस औषधि के प्रभाव में
आश्चर्यजनक समानता है,” उन्होंने स्पष्ट किया। “मनुष्य में जो कुछ भी है उस सब का
पूर्वाभास पेड़-पौधों में विद्यमान है। वनस्पति जगत् पर प्रयोग प्राणियों और मानवों
की यातना को कम करने में योगदान देंगे।
कई वर्षों बाद बोस महाशय के पथप्रदर्शक वनस्पति आविष्कारों की अन्य
वैज्ञानिकों द्वारा पुष्टि की गयी। कोलम्बिया युनिवर्सिटी में 1638 में किये गये
शोध कार्य की वार्ता “द न्यूयॉर्क टाइम्स” में निम्नलिखित रूप में प्रकाशित हुई
थीः
गत कतिपय वर्षों में यह निर्धारित हो चुका है कि जब मस्तिष्क
और शरीर के अन्य हिस्सों के बीच
तंत्रिकाएँ (Nerves) संदेश वहन करती हैं, तब छोटी-छोटी विद्युत्
तरंगे निर्माण होती हैं। इन विद्युत् तरंगों को सूक्ष्मग्राही विद्युद्धारामापी
यंत्रों (Galvanometers) से मापा गया और आधुनिक परिवर्धनकारी
यंत्रों से इनका लक्ष-लक्ष गुना परिवर्धन किया गया। मानव या जीवित प्राणियों के
तंत्रिका-तंतुओं (Never Fibres) में प्रवाहित होने वाली इन
तंरगों का अध्ययन करने का कोई संतोषजनक तरीका इनकी अत्यंत तीव्र गति के कारण अब तक
ढूँढा नहीं जा सका था।
ड़ॉ. के. एस. कोल और ड़ॉ. एच. जे. कर्टिस ने यह जानकारी दी कि
उन्होंने इस बात को खोज निकाला है कि साधारणतया घरों में मछली-पात्र में ड़ाला जाने
वाला पौधा होता है, जिसे निटेला कहते हैं और जिसमें एक ही लम्बी कोशिका होती है,
उसकी कोशिका में और तंत्री-तंतु की कोशिकाओं में पूर्ण समानता है, कोई भी भिन्नता
नहीं है। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी पाया कि निटेला पौधे के तंतुओं को उत्तेजित
किये जाने पर वे विद्युत् तरंगें निर्माण करते हैं जो, केवल गति को छोड़कर, अन्य सब
दृष्टियों से प्राणी और मानव के तंत्री-तंतुओं में निर्माण होने वाली विद्युत्
तरंगों के समान ही होती है। इस पौधे के तंतुओं की विद्युत् तरंगे प्राणियों के
तंतुओं की विद्युत् तरंगों से कहीं धीमे चलती देखी गयी। इसलिये तंत्रिकाओं में
प्रवाहित होने वाली विद्युत् तरंगों के प्रवाह के मन्दगति चलचित्र (Slow
Motion Picture) लेने के लिये कोलम्बिया युनिवर्सियी के
अनिसंधानकर्ताओं ने इस आविष्कार को तुरन्त उपयोग में लाया ।
इस प्रकार निटेला पौधा मन और स्थूल जगत् के सीमाक्षेत्र के गुप्त
रहस्यों की गूढलिपि का अर्थ जानने में एक प्रकार से रोसेटा पत्थर की भूमिका अदा कर
सकता है।
कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत के इस आदर्शवादी वैज्ञानिक के अंतरंग
मित्र थे। उन्हें सम्बोधित कर कविवर ने निम्नलिखित पंक्तियाँ लिखी थीः
हे तपस्वि ड़ाको तूमि साममंत्रेजलदगर्जने,
“उत्तिष्ठत निबोधत” ड़ाको शास्त्र अभिमानीजने-
पाण्ड़ित्येर पण्ड़तर्क हते। सुबृहत विश्वतले
ड़ाको मूढ दाम्भि केरे। ड़ाक दाओ तब शिष्य दले-
एकत्रे दाँड़ाक तारा तब होम-हुताग्नि घिरिया।
बार-बार ए भारत आपनाते आसूक फिरिया
निष्ठाय, श्रद्धाय, ध्याने-बसूक से अप्रमत्तचित्ते
लोभहीन, द्वन्द्वहीन, शुद्ध, शान्त गुरूर वेदिते।
हे तपस्वि! साममन्त्रों की जलद गम्भीर गर्जना से पुकारो-उठो! जागो!”
शास्त्राभिमानी जनों और कुतर्कों से आहत बुद्धि पण्ड़ितों को पुकारो और उन्हे बेकार
तर्कों का त्याग करने को कहों। उन मूढ दम्भियों को इस सुविस्तृत संसार में आने की
प्रेरणा दो। अपने शिष्यों का भी आह्वान करो कि वे कर्त्तव्यरूपी यज्ञवेदी के चारों
ओर एकत्रित हों, जिससे हमारा भारत, हमारा प्राचीन देश अपने सच्चे स्वरूप को पुनः
प्राप्त करे और कर्त्तव्यनिष्ठा, श्रद्धा और ध्यान में अप्रमत्तचित्त होकर लोभहीन
द्वन्द्वहीन, शुद्ध और शांत बनकर विश्वगुरू के आसन पर एक बार फिर अधिष्ठित हो।’