झुलसती लू के साथ दुहरे
होते युक्लिप्ट्स और केजुरीना के पेड़, दरकती, गुलाब की क्यारियाँ और सूखे पत्तों से
ढका लॉन...... इस मौसम में वैसे भी मन एक अजीब-सी ऊब, बल्कि मनहूसियत से भर जाता
है। कमरे से बरामदा, बरामदे से खिड़की और खिड़की से आती वही सूखी हरहराती हवा “उन्होंने खिड़की का शीशा बन्द कर दिया, परदे खिसका
दिये, फिर थोड़ी देर शीशे से टिकी खड़ी रही” सब कुछ उजाड़, विरान। माहौल की मनहूसियत से उदासी
और भी गहरा गयी। और ऐसी दोपहर एक दो हो तो काटी भी जा सकती है, पर हफ्तों, महीनों,
सालों..........
बहुत पहले भी जेठ-बैसाख की
दुपहरी तो ऐसी ही उजाड़ हुआ करती थी, पर तब इतनी उदास और सपाट कभी नहीं लगी, या यों कहे कि
इतना वक्त ही किसे रहता था! बच्चे छोटे थे, सारा समय उनके पीछे-पीछे ही
भाग-दौड़
चीख-पुकार में बीत जाता। पलकें दो घड़ी झपक लेने का तरस जाती। बच्चों को सुलाने के
लिया ‘ढ़ाका, बंगाला कौआ’ की कहानी कहते-कहते वह खुद सो जाती और
छोटा धीरू बड़े भाई के इशारे पर सिर के नीचे पड़ी माँ की कोहनी खिसका कर दबे पाँव तपती
दुपहरी में खिसक जाता। पता तब चलता, जब महरी उन्हें मड़ैया पर फालसे तोड़ते देख कर कान पकड़ कर उनके सामने हाजिर कर देती..... तब
तक बेर बिसहने लगती। आँगन और बरामदे में पानी का छिड़काव, सुराही, झंझर भरना और बाबूजी के
लिये सौंफ, कालीमिर्च की ठंड़ाई पीसना......
वह पोथी निकाल कर चश्मा टटोलने लगी।
एक-दो पाठ गुनगुनाये, थोड़ी देर बीती, उठी, लू के थपेड़ों में ही अलगनी पर सूखती अपनी साड़ी और जंपर उठा लायी, उन्हें धीमे-धीमे
तह करती रही। तह करके रैक पर रख दिया। अब बटुए से माला निकाली और चुपचाप बिस्तर पर
बैठी फेरती रही। बैठे-बैठे कमर दुखती-सी लगी, तो लेट गयी, जाने कब झपकी सी आ गयी।
थोड़ी
देर में ही चौंक कर आँखे खुल गयी। लगा, काफी दुपहरी कट चुकी होगी। चार तो जरूर
बजते होंगे। उठना चाहिए। बेटे-बहु के कमरे के दरवाजे उढके हुए थे। कूलर की घर-र-र
सारे घर की खामोशी को मथ रही थी। दबे पाँव बैठक की ओर आयी। आरामकुर्सी पर
उठंगे-उठंगे वह सो रहे थे। एक किताब हाथों के सहारे पेट पर टिकी थी, चश्मा थोड़ा नाक के नीचे खिसक आया था। उन्होंने
चुपचाप किताब मेज पर रख दी, चश्मा उतारने लगी कि उनकी नींद खुल गयी-तुम सोयी नहीं
क्या
-नहीं, थोड़ी झपकी आ गयी थी लेकिन गर्मी बहुत है,
नींद खुल गयी। थोड़ा ठहर कर पूछा-जगा दिया तुम्हें।
-नहीं, मैं भी पढते-पढते
यों ही झपक गया था। सचमुच बड़ी गर्मी है।
-शरबत! नहीं, नहीं..... अच्छा ऐसा करो। चाय
बना दो। तब तक राजेन और बहू भी जग जायेंगे।
वह दबे पांव ही रसोई में
गयी। स्टोव में तेल नहीं था। बोतल से ड़ालने लगीं, तो जाने कैसे बोतल फिसल गयी। चारों
ओर मिट्टी का तेल फैल गया। आवाज सुनकर ‘कौन है? कहती रीमा रसोई तक चली आयी। वह अपराधिनी-सी
दयनीय बनी जल्दी-जल्दी कपड़े से सुखा रही थी।
-ओह! माँजी, आप?
उन्होंने खिसियानी-सी हँसी
हँसते हुए कहा-मन में आया, जरा चाय बना दूँ तुम्हारे बाबूजी भी जग गये थे। सोचा,
जब तक बनेगी, तुम दोनों भी जग जाओगे तब तक......
-ओह, इतनी दोपहर में चाय
कौन पियेगा! जरा शाम तो होने दिती। फिर जमना आकर बनाता ही है, आप बेकार ही तकलीफ
करने लगती है न!
-चार से ऊपर हो रहे थे, मन
भी उचाट था। वह स्वर को धीमा करते हुए बोली।
-खूब! तो आप चाय बनाने लगी......! उसने केवल हँस कर कहा था, वह भी बुरा
लगने लायक कोई शब्द नहीं, पर उनका मन रोने-रोने-सा होने लगा।
कमरे में राजेन शायद पूछ
रहा है। बहू फिक्क-से हँसती हुई उन्हें बता रही है- माँजी है! जाने इतनी दोपहर में उन्हें चाय बनाने
की क्या सूझी....... और बुढापे में हाथ तो चलता नहीं, बोतल लुढक गयी मिट्टी के तेल
की.......!
-तो उन्हें समझा दो और अगर
चाय जल्दी पीना चाहती हो, तो जमना को कह दो, जल्दी आ जाया करें।
-लो, तुम समझते हो, मैं
उन्हें किचेन में काम करने को कहती हूँ! उनके जाने से तो काम बढ जाता है, पर ये बूढे
लोग
बूढे लोग! उनकी आँखें भरभरा आयी। अभी तो यहाँ
आने के पहले तक सारा काम ही सम्भालती थी, बाबूजी का नाश्ता, खाना, कपड़े धोना तक, और बाबूजी ने कभी शिकायत
नहीं की कि अब तुमसे काम ठीक नहीं होता। दाल-सब्जी में भी न कभी पानी ज्यादा न नमक
कम, जमना की तरह। सोचा, चलकर बैठक में उन्हीं के पास बैठूं। चाय बनाने का उत्साह
तो समाप्त हो गया था। बैठक की ओर बढी कि कानों में राजेन और बहू के खिलखिलाने की
आवाज आयी। वह झेंप कर पूजा वाले कमरे की ओर बढ गयी। जाते-जाते राजेन का धीमा स्वर
कानों में पड़ा-प्रेम-शेम कुछ नहीं, अकेली बोर फील करती होंगी, तो बाबूजी के पास
जाकर बैठ जाती होंगी।
-वाह, जैसे मैंने देखा न
हो!
माँजी के मना करने पर भी पिताजी अपने कपड़े खुद धो लेते हैं। चाय की खाली प्याली उनके
माँगने पर भी किचेन में रख आते हैं। दिन में अधिक नहीं तो चार-पाँच बार दवा के
लिये पूछते है-खायी कि नहीं? खतम हो गयी हो, तो ले आऊँ, उनका बस चले, तो
बात एक भरपूर कटाक्ष पर
समाप्त हो गयी।
चाय की खाली प्याली रख कर वह चुपचाप सिर झुकाये बैठक की ओर मुड़ गये। सोचा, जमना से माँजी के बारे में
पूछें फिर रुक गये, लौट कर उसी मुद्रा में झुके हुए अखबार लेकर बैठ गये। इतना
अखबार उन्होंने जीवन में कभी नहीं पढा था जितना पिछले ढाई सालों में। रिटायर होने
के ड़ेढ
साल बाद ही यहाँ आ गये थे दोनों ड़ेढ वर्षों तक सौ रूपये महीने भेजने के बाद
अचानक राजेन का पत्र मिला था, उसमें उसने अकेले उतनी दूर रहते माँ-बाबूजी को अपने
पास रहने के लिया बुलाया था, मकान को किरायेपर उठा देने की बात भी लिखी थी, वैसे
किराये वाली बात गौण थी, मुख्य तो यही थी कि मां को अकेले सारा काम करना पड़ता हैं, यहाँ हम लोगों को चिन्ता बनी
रहती है, इतनी दूर से समय कुसमय पहुँचना भी मुश्किल रहता है, सरकारी नौकरी
ठहरी.....
अड़ोस-पड़ोस
वालों ने भी कहा-ठीक ही लिखा है, अब यह उम्र आराम की है। यहाँ तो सौदा-सुलुफ और जो
कुछ थोड़ा बहुत साशन लगता है, बाबूजी खुद ही लाते हैं। वहाँ तो बेटा इतना बड़ा अफसर
है, हर काम के लिये चपरासी, अरदली हाथ बांधे खड़े रहेंगे। बहू भी सुशील है। इतनी
बार यहाँ आयी, कभी ऊँचे बोल नहीं सुने। राज करोगी, राजेन की माँ! अफसरों की
पुलाव-कचौड़ी से नीचे बात ही नहीं होती! और फिर सबसे बड़ी बात कि उसे इतना ख्याल है,
नहीं तो आजकल के बेटे।
लेकिन मुँहफट बूढी दरोगानी ने कहा था-सब कचौड़ी-पकौड़ा एक तरफ और अपना
सुराज एक तरफ! वहाँ तो अफसरी कायदे से रहना होगा। लेकिन हाँ, आराम तो होगा ही, और
फिर बुलाने पर न जाना भी।
इन दोनों ने खुद भी साथ-साथ और अलग-अलग बहुत कुछ सोचा था, घर छोड़ने
की बात से दोनों के मन में एक-सी हूक उठी थी, पर तर्क सभी अकाट्य थे, सचमुच बहू का
स्वभाव परखा हुआ है और फिर परतंत्रता कैसी?
हिचक कैसी? अपनी ही कोख में जनमी औलाद है, उन्हें तो चार बात भी कह
दें, तो जबान नहीं खोल सकते हैं। लाख अफसर हों, माँ-बाप के सामने बच्चे ही हैं।
-रिजर्वेशन हो गया। आँगन में आकर बोले थे, तो जैसे किसी ने कलेजे पर
हथौड़ा मारा हो। सामान बँधने लगे, चीजे बँटने लगी, सिल-बट्टे, सूप-चलनी, अलगनी,
अलमारियाँ, कद्दू-कस, जन्माष्टमी पर बजने वाले घंटा-घड़ियाल, कृष्ण-जन्म के झूले,
रामनवमी पर पूजा जाने वाला तुलसी का चौरा...... कुछ नहीं ले जाना है। राजेन ने
लिखा है-अम्मा से कहिए, सब कुछ न उठा लायें, यहां उन्हें किसी बात की तकलीफ न
होगी। सचमुच छोड़ दिया सब कुछ। रामेश्वरम् से लाया, तीर्थ का तांबे का लोटा भर
धीमें से रख लिया, घंटा-घड़ियाल और कन्हैयाजी का पालना, बस........ बाबूजी ने भी
देख कर मना नहीं किया। आखिर उनका भी तो कितना कुछ जुड़ा था इस लोटे और पालने के
साथ। कैसे वे दोनों साथ-साथ नहाये थे और भगवान के सामने हाथ जोड़ कर, जो कुछ उसने
भरापूरा दिया था, उसके लिये गद्गद् स्वर में कृतज्ञता अर्पित की थी। रामेश्वरम्
जाने के दो महीने पहले ही छोटे रनधीर की नौकरी लगी थी।
स्टेशन पर राजेन खुद ही आया था, दो चपरासियों के साथ प्लेटफार्म पर फैले
थैले, बंड़लों, गठरियों को देखकर एक बार तो खीझा, फिर परेशान-सा संयत स्वर में
बोला-आपको तो मना किया था बाबूजी अम्मा को तो समझ नहीं, पर आप तो मना कर सकते थे।
सौ बरस पुरानी सड़ी-गली चीजों का भला क्या होगा यहाँ!
वह झेंप कर हँसे थे-अरे भाई, क्या बताऊँ! इन औरतों को तो तुम जानते
हो ही, इतना मना किया, इतना मना किया, पर अब समझा तक ही तो सकता हूँ। खैर, एक तरफ कहीं रख दी जायेगी, हें, हें, हें।
भाई वाह, माँजी तो चलता-फिरता म्यूजियम साथ
लायी हैं! रीमा ने हँस कर फिकरा कसा।
पूरी-की-पूरी गठरियाँ टाँड़ पर चढा दी गयी, सो
भी स्टोर वाले पर कि कोई उतार भी न सके। दो-एक बार उनके बारे मे पूछ कर वह चुप हो
गयी थी। तभी उन्हें लगा था, जान-बूझ कर उन्होंने घर पर जितना कुछ छोड़ा था। अनजाने
उससे कहीं ज्यादा छूट गया है, जो जीवन भर शायद न मिल सकेगा।
बाबूजी शायद ज्यादा साहसी थे, अड़ोस-पड़ोस में
मन रमाने की कोशिश करते, सुबह-सुबह छड़ी लेकर घूमने निकल जाते। समय मिलता, तो माँजी
को बुलंद आवाज में बुलाते-क्या कर रही हो ? अब यहाँ तुम्हें कौनसे काम का बहाना
हैं, चलो पाठ किया जाये।
एकाध बार शुरू में उन्होंने राजेन को भी
अधिकार भरे स्वर में बुलाने की कोशिश की, पर राजेन ने एक अजीब बड़प्पन भरी हँसी हँस
कर टाल दिया-आप कीजिए, मुझे तो अभी देखिए मीटिंग में जाना है, फिर मेरे लिए बहुत
समय पड़ा है पाठ-पूजा के लिए।
एक दिन बहू ने बड़े मीठे ढंग से आकर समझाया-
माँजी, जरा बाबूजी से कहिएगा, इतनी जोर से पाठ न किया करें। वहाँ घर की बात और थी,
यहॉ सब आफिसर्स ही रहते हैं, और फिर भगवान तो सब जगह है, देखिए न, कबीरदासजी ने भी
कहा है-ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय। आप और बाबूजी मन-मन में पूजा
कर लिया कीजिए, ये गुस्सा होते हैं।
वह बहू के दर्शन-ज्ञान और अकाट्य तर्क के
सामने निरूत्तर थी। पूरी आज्ञाकारिता के साथ उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि भविष्य
में वे दोनों इसका ध्यान रखेंगे। अकेले में स्वयं को भी समझाया, ठीक तो कहती है,
इन लोगों को तो कोई उज्र नहीं, पर आने-जाने वाले जरूर हँसते होंगे। कहा भी है,
जैसा देश, वैसा भेस। मन और हलका हो गया, जब देखा, राजेन पिताजी के साथ लॉन में चाय
पी रहा है और घर-जायदाद वगैरह के बारे में सलाह ले रहा है।
चाय खत्म कर उठते-उठते राजेन ने जरा झिझकते
हुए नपे-तुले स्वर में कहा- बाबूजी, शाम को मेरे दोस्त वगैरह आते हैं न, तो प्लीज
आप अन्दर आ जाया कीजिए। असल में उन्हें ड़्रिंक्स वगैरा चाहिए होती है, स्मोक भी
करना चाहते हैं। आप बुजुर्ग ठहरे, आपके सामने झिझकते हैं! और जल्दी-जल्दी उनके
चेहरे पर आयी प्रतिक्रिया देखे बिना जमना को आवाज दी-कार साफ करो। फौरन, बाहर जाना
है।
-माँजी, हम बाहर जा रहे हैं। जमना बेबी को
घुमा कर लौटे, तो दूध दिलवा देंगी। बस, खाना हम बाहर ही खायेंगे।
कार सर्र-से जा चुकी थी। थोड़ी देर वह उड़ती धूल को देखती रही, फिर एकदम अपने
में लौट आयी। बाबूजी उसी तरह लॉन में सिर झुकाये बैठे थे।
-वे लोग तो बाहर गये, सुनने पर भी चेहरे पर
कोई भाव नहीं आया। गोद में पड़ी किताब उलटते-पलटते रहे।
-कौनसी किताब है......पोथी है?
-नहीं रामतीर्थ-ग्रन्थावली।
किसी सुनसान घाटी में जैसे कोई अस्फुट ध्वनि
गूँजी हो और उसके रेशे-रेशे चारों तरफ बिखर गये हों, ऐसे ही उन दिनों के अहसासों
में एक साथ कुछ बिखरा हुआ था, थोड़ी देर चुप रही, फिर एकदम सहज होते हुए बोली-क्या
बनाऊँ...... कटहल बनाती हूँ आज, तुम्हें बहुत पसन्द है।
-न,न, अब पचता नहीं।
-तो? बस खीर और सादी सब्जी?
-खीर? नहीं जब बहू और राजेन रहें, तब बनाना।
शब्द थोड़े-से थे, पर अर्थ गहरे और विस्तृत। वह
चुप हो गयी। घर पर थे, तो हर चौथे-पाँचवें हाथ की बनी मोटी रोटियाँ और आलू-बैंगन
की सब्जी, बहुत खुश होते तो मखाने की खीर, बाद में दो रोटियाँ अपने लिए भी उलट उसी
थाली में बैठ जाती। तब तक वह हाथ धो रहे होते।
शाम वैसी ही गुमसुमी-सी बीती, अँधेरा होने पर
मन में घुमड़ता कुछ और भी गहरा आया। एकाएक उनके पास जा कर खड़ी हो गयी और अटकती आवाज
में कह गयीं-सालों हो गये, एक बार घर चलते न!
-घर! उनकी आँखों में एक चमक आयी और बुझ गयी-वह
तो पूरा किराये पर उठा दिया है! क्यों? क्या बात है?
-बात? बात कुछ नहीं, बहुत दिनों से घर छूटा ही
है, बस?
-लेकिन कुछ दिनों को चलने से फायदा......?
-हाँ, एक गहरी उसाँस उस खामोशी में उतरती चली
गयी-क्या फायदा......।
सुबह-सुबह ही रनधीर के आने का तार मिला था। दस
बजे राजेन उसे स्टेशन से लेकर लौटा। पैर छूने के लिए माँ के घुटने तक हाथ जरा झुका
कर हँसते हुए बोला-अच्छी तो हो, अम्मा! चलो भैया की सरकारी नौकरी में हुकुम चलाने
का उनका काफी भार तुमने हलका कर दिया होगा।
वह जोर से हो-हो करके हँसते हुए बताने
लगे-अरे, पूछो मत! दिन भर लोगों की भीड़ घेरे रहती है। साहब-साहब कहते जबान सूखती
है। उनके सामने तो जमना और चपरासियों तक की अकड़ देखने लायक होती है। एक तो आजकल
छुट्टी गया है, फिर भी दो-चार दिन भर...... वह उत्साह में भरकर बोले जा रहे थे।
राजेन सिगरेट की राख झाड़ते हुए भाई से कह रहा
था-सब ऊपरी ठाट है, अन्दर ठाले रहते हैं। अब तो असिस्टेंट भी पूरे घाघ मिलते हैं।
कड़ी नजर रखते हैं कस्टमर्स पर। सरकारी नौकरी में तो बस छोटे ओहदों पर फायदा है।
बेबी को कुछ सालों बाद नैनीताल कॉन्वेन्ट में ड़ालना चाहता था, पर दम ही नहीं।
भोजन के बाद रनधीर जाने लगा, तो राजेन ने
रोका-बैठो, बातें करेंगे: हम देर से ही सोते हैं। फिर थोड़ी देर रुक कर, उन दोनों
को देखकर ठंड़े लहजे में बोला- आप लोग भी चाहें तो बैठें, बाबूजी!
उन्होंने तुरंत उठते हुए कहा-नहीं, नहीं तुम सब
बातें करो। आज काफी थकावट महसूस हो रही है। एक झूठी जम्हाई लेकर वह उठ आये, पीछे-पीछे
वह भी आ गयी। दोनों को एक साथ लगा, शेष तीनों ने एक राहत-भरी मुक्ति महसूस की है।
बरामदे से चुपचाप गुजरते हुए वह सोच रही थी,
नींद तो अभी घंटों नहीं आयेगी, तब तक क्या करेंगी? क्यों न बाबूजी को भी कमरे में
ही बुला लें, थोड़ी देर बैठें, फिर चले जयेंगे। उन्हें मुड़ते देख कर टोका-अभी सोओगे?
-नहीं तो।
-तो बैठो न कमरे में ही।
-कमरे में? नहीं, चलता हूँ..... रात काफी हो
गयी है। थक भी गया हूँ। इस समय कमरे में बैठना........ चलूँ, जरा अखबार आज ठीक से
नहीं पढा।
सब कुछ कहा-अनकहा, जाना-समझा था, फिर भी यह
ऐसा प्रस्ताव रख गयी थी बाबूजी के सामने। अपनी गलती तुरंत समझ में आ गयी।
बहू-बेटों के पास से थकान का बहाना करके आना और फिर घुल-घुल कर बतियाना.......।
एक दिन बहू राजेन से खिलखिलाती कह रही
थी-पिताजी तो माँजी को बिलकुल मॉड़र्न बनाने पर तुल गये हैं! आज उन्हें शिमला-पैक्ट
के फायदे-नुकसान समझा रहे थे!
-तो आपको क्या ऑब्जेक्शन है? राजेन ने मुसकरा
कर पूछा।
-ऑब्जेक्शन? खी-खी-खी-खी! मुझे तो लगता है, सच
जैसे थिएटर देख रही हूँ! अभी देखो, नाउ शी इज परफेक्टली ऑलराइट, लेकिन पिताजी को
चैन कहाँ? जब भी मौका मिलेगा-कमजोरी लगती हो तो ताकत वाली दवा एकाध शीशी और ला
दूँ...... घबराहट के लिए वह कौन-सी होमियोपैथी की दवा बतायी थी ड़ाक्टर बैनर्जी ने?
माँजी निहाल हो जाती है। फिर भौहों की कमान चढाती राजेन से बोली-सच, तुमने अपने
पिताजी से कुछ नहीं सीखा.....कुछ नहीं!
-शैतान की बच्ची......! राजेन एक प्यार-भरी
चपत लगा कर मुसकरा पड़ा।
एक-दो दिन बाद ड़ाक्टर के यहाँ जाते समय जब
उन्होंने तबीयत का हाल पूछा, वह एकदम चिड़चिड़ा पड़ी उन पर। स्तब्ध-से अपलक देखते रहे
उन्हें और चुपचाप चले गये। वह लेटी आँखों पर कुहनी रखे रोती रही.....आखिर उनका
क्या कुसूर था, क्यों चिड़चिड़ाई उन पर!
काफी रात गये उनकी ‘गुड़ नाइट’ के शब्द कानों
में पड़े। तब तक वे दोनों अलग-अलग पूरी तरह जगे हुए थे। बीच में माला जपते समय या
रामतीर्थ-ग्रन्थावली पढते समय एकाध झपकी आयी भी, तो उन तीनों के ठहाकों और
खिलखिलाहटों से उचट गयी।
सुबह उठने के साथ ही रनधीर ने हँसना और सबको
हँसाना शुरू किया। यह उसकी बचपन की आदत थी। राजेन की तरह गम्भीर नहीं, हमेशा का
चिबिल्ला था। इस समय भी कभी बेबी के हाथ से ड़ॉल छीन कर उसे रूला रहा था। कभी बाबूजी
का चश्मा लगा कर पढने की कोशिश कर रहा था, कभी जब वह भाभी को छुप कर देखने गया था,
उनके मनोरंजक प्रसंग सुना रहा था। कोई नहीं मिलता, तो जमना से ही उसकी शादी की
बाबत जानकारी ले रहा था।
-जमना, सुन, तू हनीमून पर जरूर जाना। खर्च की
सारी जिम्मेदारी मेरी।
-जमना झेंपता-शर्माता ट्रे उठाकर चला जाता। वह
पूजा कर रही थीं, तब भी ड़ाइनिंग-रूम से आते ठहाके उन्हें कुलबुला जाते, विशेषकर जब
बेटों के साथ उनकी भी मुक्त हँसी मिली होती। पूजा करते हुए भी मन उन्हीं लोगों पर
था। वह ज्यादा खुश और मुक्त लग रहे थे, बेटों की बातों में खूब रस ले रहे थे।
राजेन और रनधीर के मुँह से कई बार ‘बाबूजी’ संबोधन सुन उनका मन पुलकित हो उठा था।
हाथ की माला सालों पहले की परिक्रमा करने लगी थी, जब स्कूल से टीम जीत कर आने पर
दोनों खेल की बातें बताते-बताते पिता को निहाल कर देते और वह प्रसन्नमन कहते-
शाबास मेरे शेरों! फिर ठहाके थम गये। सब शान्त हो गया। राजेन ऑफिस चला गया। काफी
देर बाद वह कमरे में आये, तो मुसकरा दी-आज तो बड़े दिन बाद बेटों से ठट्ठे करते
सुना तुम्हें!
उन्होंने जैसे सुना न हो, ऐसे स्थिर दृष्टि से
उन्हें देखा, फिर एक-एक शब्द पर रुकते हुए खिड़की के बाहर देखते कह गये-सुनो, मैं
जा रहा हूँ...... छोटे के साथ।
-कब? एक अप्रत्याशित प्रतिक्रिया उभरी-कितने
दिनों के लिए?
-कल। वहीं रहने के लिए, उसके साथ........
भयाक्रान्त-सी वह एकदम से पूछ बैठी-क्यों?
लगा, यह सवाल एक बड़ी चट्टान की तरह उन दोनों
पर भर-भरा कर गिर पड़ा हो और उनके समेत उनका सब कुछ चकनाचूर हो गया हो।
कठोर संयम से उन्होंने आवेगों की रास खींच
ली-कुछ नहीं, यों ही.......काफी दिन तो हो गये यहाँ रहते। थोड़ा घूम-फिर आना चाहिए.......
-मुझे भी तो यहाँ रहते.......! वह निरंतर
असहाय-सी होती जा रही थी।
गले में बहुत कुछ गुटकते हुए धीमे-धीमे
बोले-मैं आ जाऊँगा, तब तुम जाओगी।
फिर दोनों एकदम चुप, एक दूसरे को देखते रहे,
जैसे आँखें पथरा कर किसी एख ही दिशा में टिक गयी हों। उन आँखों की अथाह कातरता में
बस एक ही सवाल गहराता जा रहा था........... हमारा अपराध..........?
पहले वह ही सँभले-अब जब दो बेटे हैं, तो एक ही
दोनों का खर्च उठाये, ठीक नहीं लगता न........? है कि नहीं? ठीक ही सोचा दोनों ने,
अभी यहाँ बेबी छोटी है, तुम यहाँ रहोगी। सात-आठ महीने बाद छोटी की ड़ीलीवरी
होगी........ फिर तुम वहाँ चली जाओगी छोटे के पास। मैं यहाँ.........तो
चलूँ....... ऐं........तुम जरा मेरी कमीजें वगैरा......।
थोड़ी देर बाद वह अखबार लिये फिर सामने खड़े
थे-यही कहने आया था कि मेरी छड़ी रखना मत भूलना, जो हम हरिद्वार से लाये थे। जरा
टहल आऊँ न! बस ...... यही कहना था......।
लेकिन वह कुछ कह नहीं सके थे। यूँ ही बस, कमरे
के बीचों-बीच कुर्सी का सिरा पकड़े खड़े थे। काँपती उँगलियों में कस कर पकड़ा हुआ अखबार
और आँखों में बाण-बिद्ध क्रौंच-युगल की मूक पीड़ा थीं, जिसे देखकर किसी आदि कवि का
कोमल ह्रदय करुणा की अथाह लहरियों में बह चला था।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमह शाश्वती
महा........
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